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विद्यालयों में जेंडर की अवधारणा

  • Aug, Sat, 2024

विद्यालयों में जेंडर की अवधारणा

हमारे विद्यालयों में जेंडर का समाजीकरण यह आश्वस्त करता है कि लड़कियों को यह हैक कर दिया जाए कि वे लड़कों के बराबर नहीं हैं। विद्यार्थियों को जब भी लिंग की दृष्टि से बैठाया जाता है या फिर खड़ा किया जाता है तो अध्यापकगण यह ध्यान रख करते हैं कि उनके साथ अलग-अलग व्यवहार किया जाए। जब भी कोई प्रशासक यौन उत्पीड़न के किसी कृत्य को नजरअंदाज करता है तो वह लड़कियों/महिलाओं के प्रति अपमान की अनुमठि दे रहा होता है। जब लड़कों के विभिन्‍न व्यवहारों को यह कहकर बर्दाश्त कर लिया जाता है कि “लड़के तो लड़के ही होबे हैं” तो उस रूप में विद्यालय लड़कियों के उत्पीड़न को बनाए रखने का कार्य कर रहे होते हैं।

बदलता परिवेश

‘ऐसे कई साक्ष्य देखने में आते हैं कि लड़कियाँ लड़कों से पढ़ाई की दृष्टि में अधिक सफल होती जा रही हैं। हालाँकि कक्षाकक्ष का परीक्षण यह दर्शाता है कि लड़कों और लड़कियों को अभी भी उन तरीकों से समाजीकृत किया जाता है जो जेंडर समानता के विरुद्ध कार्य करते हैं। अध्यापकगण लडकियों को नारीवादी आदर्शों के रूप में समाजीकृत करते हैं। लड़कियों को उनके शांत एवं साफ सफाई वाले व्यवहार के लिए प्रशंसा की जाती है जबकि लड़कों को इस बात के लिए प्रेरित किया जाता है कि स्वतंत्र रूप से सोचें, सक्रिय बनें तथा बोलने काले बलनें। लड़कियों को विद्यालयों में इस्र बात के लिए समाजीकृत किया जाता है कि वे इस कात को पहचानें कि लोकप्रियता का महत्त्व है और यह सीखें कि शैक्षिक कार्यकुशलता तथा योग्यता का इतना अधिक महत्त्व नहीं है।

विद्यालय में पुरुषों और महिलाओं की जेंडर भूमिकाएं

उत्तरजीवन के प्रारंभिक चरणों से ही जेंडर संदः सुदद ‘शिक्षा’ एक साधन रही है। समाजीकरण की प्रक्रिया के के व की हक महिलाओं और पुरुषों से कुछ निश्चित भूमिकाएँ निष्पाविव करने की उम्मीद की जाती है। अलग-अलग भूमिकाओं के निष्पादन के समाज के मानकों के कारण समाज में पुरुषों और महिलाओं के बीच जेंडर संबंध किए गए। पश्चिमी समाज में उन्नीसवों शताब्दी तक पुरुषों और महिलाओं को भूमिकाएँ स्थैतिक मानी गईं लिंगों के बीच भूमिकाओं में और उनके प्रवर्तन में अंतरों असमान शुक्धि संबंध पैदा हुए और इसका परिणाम यह हुआ कि एक समूह लाभान्वित होता गया और दूसरा समूह बंचित। पुरुषों और महिलाओं के बीच की असमानता आगे बारम्बार अभिव्यक्त होती रही और इसका परिणाम यह हुआ कि समाज में समस्त संबंधों और सामाजिक विन्यासों का विनियमन किया जाने लगा। नर और मादा के बीच के जीव-वैज्ञानिक अंतरों ने सामाजिक-सांस्कृतिक अंतरों को निर्धारित किया। शुरू में इसे चुनौती नहीं दी गई। पुरुषों और महिलाओं के छाए सामाजिक ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पश्चिमी समाजों में और इसके साथ-साथ अन्य समा में भी सामाजिक भूमिकाओं को पितृसत्तात्मक अभिवृत्तियों द्वारा आकार प्रदान किया गय॑ है। ये सामाजिक भूमिकाएँ पितृसत्तात्मक अभिवृत्तियों द्वारा प्रभावित हुईं हैं। पुरुषों औ महिलाओं के लिए उपयुक्त मानी गई भूमिकाएँ इतिहास, संस्कृति और समाज हे प्रभावित होती रही हैं। इस नजरिए से देखें तो ऐतिहासिक काल से महिलाओं ने अल (और आमतौर पर अधीनस्थ) भूमिकाएँ ग्रहण कीं क्योंकि पश्चिमी और अन्य समा# पितृसत्तात्मक थे।

  • नारीवादी अध्येताओं द्वारा किए गए अध्ययन इस बात पर जोर देते हैं कि सामाजिक रचना ने महिलाओं के दमन में योगदान दिया है। इसके साथ नारीवादी और उत्तर-संरचनावादी दृढ़ रूप से यह मानते हैं कि यद्यपि विद्यालय – सांस्कृतिक और सामाजिक मानकों के पुनरुत्पादन के स्थल रहे हैं, फिर भी दमनकारी सामाजिक ताकते को विद्यार्थियों ने निष्क्रिय रूप से कभी भी स्वीकृत नहीं किया। इतालवी माक्सवाद सिद्धांतकार एन्तोनिया ग्राम्शी (1971) और आलोचनात्मक उत्तर-संरचनावादियों का अध्ययन भ्री यही दर्शाता है। एपल (1990) के अध्ययन ने स्थापित किया कि विद्यालयों ने निश्चित मानकों, संस्कृति और संस्कारों का पालन किया है और इनके थुनरुत्पादन को सुनिश्चित किया है तथा इसकी हमेशा रक्षा की गई है और हमेशा इसे कायम रखा गया है। विद्यालयों में कुछ निश्चित साहित्य और भाषा की पाद्यपुस्तकों को सुझाने’से विद्यार्थियों के बीच कुछ चर्चाएँ तो अवश्य उत्पन्न हुईं। उदाहरण के लिए तमिल के शिक्षार्थियों के लिए भरतियार द्वारा लिखी गई सामग्रियाँ सुझाई गईं थीं। महिलाओं के सशक्तिकरण के बारे में और दमन के सभी प्रकारों से व्यक्तियों की स्वतंत्रता के संबंध में उन्होंने अत्यंत जोरदार तरीके से बातचीत की है।

कथा या गल्प की व्याख्या करने के दौरान अवस्थिति और समयकाल के आधा पर साहित्य के पाठों को संदर्भीकृत किया जा सकता है। कक्षा-कक्ष के प्रतीकात्मक (६७७1०७)) प्रतिमान में विद्यार्थी स्वयं को अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के आधार पर पहचानों से संदर्भित कर लेंगे। नर विद्यार्थी अपनी पहचान पुरुषवाची तरीके से कर सकते हैं। यह अध्ययन-कक्ष में उनके सीखने में, चीजों को करने और उनें जानने में प्रतिबिम्बित हो ‘सकता है!

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